Zenab rehan

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दूसरा अध्याय




तब सवाल यह जरूर होता है कि आगे इसी श्लोक में सत्त्व की शरण की बात क्यों कही गई? बात असल यह है कि आखिर इन तीनों से पिंड छूटने का उपाय भी तो होना चाहिए, और जैसा कि चौदहवें अध्याआय के अंत में कहा है, 'विषस्य विषमौषधाम्' के अनुसार जैसे जहर को जहर से ही मिटाते हैं, और 'कण्टकेनेव कण्टकम्' के अनुसार काँटे से ही काँटे को हटाते हैं, ठीक उसी तरह गुण की ही मद से गुणों से पिंड छुड़ाना होगा। दूसरा उपाय है नहीं। गुणों में भी दो तो चौपट ही ठहरे। हाँ, सत्त्व का काम है ज्ञान, प्रकाश, सुझाव, आलस्य त्याग, फुर्ती और मुस्तैदी। इसीलिए कहा गया है कि सत्त्व का ही आश्रय बराबर ले के उक्त विशेषताएँ हासिल करो और अंत में तीनों से ही छुटकारा लो। बराबर, निरंतर, नित्य सत्त्वगुण का आश्रय लेने को कहने का आशय यही है। जब-जब रज और तम दबा के आलस्य आदि में फँसाना चाहें तब-तब मुस्तैद हो के सत्त्वगुण की मदद से लड़ना और उन्हें भगाना होगा। तभी काम चलेगा। यही बात शांतिपर्व के धर्मानुशासन के 110वें अध्यााय के 'ये च संशांतरजस: संशांततमसश्च ये। सत्त्वे स्थिता महात्मनो दुर्गाण्यतितरन्ति ते' (15), में भी 'सत्त्वे स्थित:' शब्द से बताई गई है। पहले यह कहा है कि उनके रज और तम एकबारगी दब गए हैं। फिर सत्त्व के कायम रहने की बात आई है। इससे साफ हो जाता है कि सत्त्व नित्य रहता है, बराबर रहता है। क्योंकि दोनों शत्रु शांत जो हो गए! खत्म जो हो गए!

शांतिपर्व के इसी श्लोक का 'महात्मान:' शब्द गीता के 'आत्मवान' के ही अर्थ को कहता है। महात्मा लोगों की आत्मा महान होती है। इसका तात्पर्य यह है कि उनका मन छोटी-छोटी, संसार की क्षुद्र बातों में न पड़ के बहुत ऊपर चला जाता है, बड़ा बन जाता है, आत्मतत्त्व में लग जाता है। यही वजह है कि वह द्वन्द्व या राग-द्वेष, शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख आदि से अलग हो जाता है। उसे इस बात की भी फिक्र नहीं होती कि अमुक चीज नहीं है, उसे कैसे लाऊँ और मिली हुई की रक्षा कैसे हो आदि-आदि। इसे ही योग - जोड़ना या प्राप्त करना और क्षेम - रक्षा करना - कहते हैं। वह इससे भी मुक्त हो जाता है। हमने यही लिखा भी है।

शांतिपर्व के 52वें तथा 158वें अध्यायों में जो कुछ भीष्म को आशीर्वाद तथा अर्जुन को उपदेश दिया गया है वहाँ भी बार-बार यह 'सत्त्वस्थ' पद आया है। 'ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ। नच ते क्वचिदासत्तिर्बुद्धे: प्रादुर्भविष्यति॥ सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति। रजस्तमोऽभ्यां रहितं घनैर्मुक्तइवोडुराट्' (52। 17-18), 'ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च। निर्ममा निरहंकारा: सत्त्वस्था: समदर्शिन:॥ लाभालाभौ सुखदु:खे च तात प्रियाप्रिये मरणं जीवितं च। समानि येषां स्थिरविक्रमाणां बुभुत्सतां सत्त्वपथे स्थितानाम्। धर्मप्रियांस्तान् सुमहानुभावान्दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्च्चयेथा:' (158। 33-35) इन श्लोकों में अक्षरश: गीता के इस श्लोक की ही बात है।

यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:॥ 46 ॥

(जिस तरह) जितना काम छोटे-बड़े जलाशयों से निकलता है वह सभी केवल एक ही विस्तृत जलराशिवाले समुद्र या जलाशय से चल जाता है; (उसी तरह) वेदों से जितना काम चलता है आत्मज्ञानी विद्वान का वह सबका-सब (यों ही) चल जाता है - पूरा हो जाता है। 46।

इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका निष्कर्ष यही है कि छोटे जलाशय का काम बड़े से, दोनों का उससे भी बड़े से और अंत में सभी का काम सबसे बड़े-से - बड़े से बड़े से - चल जाता है। अत: उसके मिलने पर बाकियों की परवाह नहीं की जाती। आत्मज्ञान हो जाने पर सांसारिक सुखों और भौतिक पदार्थों की परवाह नहीं रह जाती है। क्योंकि आत्मा तो आनंद सागर ही ठहरी। बृहदारण्यक के चौथे अध्यांय के तृतीय ब्राह्मण के 32वें मंत्र के 'ऐषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' से शुरू करके समूचे लंबे 33वें मंत्र में लोक-परलोक के सभी सुखों एवं आनन्दों का तारतम्य दिखाते हुए आखिर में आत्मानंद को ही सबके ऊपर माना है। कहा है कि भी उसी के भीतर शेष सभी समा जाते हैं। अन्य उपनिषदों में भी यही बात आती है। यहाँ इसी की ओर इशारा है।

इस श्लोक में ब्राह्मण शब्द का अर्थ ब्राह्मण जाति न हो के आत्मज्ञानी ही है, यह बात पहले ही कृपण शब्द की व्याख्या के सिलसिले में कही जा चुकी है। इसीलिए 'ब्राह्मणस्य' के आगे 'विजानत:' शब्द आया है जो विज्ञ या विद्वान का वाचक है।

इस श्लोक का अर्थ करने में किसी-किसी ने उस अर्थ पर तानाजनी की है और उसे खींचतानवाला बताया है जो हमने किया है। ऐसे लोगों का कहना है कि 'सर्वत: संप्लुतोदके' का अर्थ समुद्र या समुद्र जैसा महान जलाशय न करके बाढ़ या जल-प्लावन कर लेना ही ठीक है। इससे श्लोक का यह अर्थ हो जाएगा कि जैसे जल-प्लावन होने पर जितना प्रयोजन ताल-तलैया का रह जाता है, अर्थात कुछ भी प्रयोजन रह जाता नहीं, वैसे ही आत्मज्ञानी विद्वान के लिए भी उतना ही प्रयोजन वेदों से रह जाता है - अर्थात कुछ भी नहीं रह जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञानी के लिए वेदों की निष्प्रयोजनता का प्रतिपादन खुले शब्दों में वे लोग इस श्लोक में मानते हैं।

बेशक, इस अर्थ में वैसी खींचतान नहीं है। जैसी हमारे अर्थ में है। हालाँकि, उनके अर्थ में भी द्रविड़ प्राणायाम जरूर है। क्योंकि कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता यह बात श्लोक के शब्दों से सिद्ध न हो के अर्थात सिद्ध होती है। लेकिन ऐसा अर्थ मानने में एक बड़ी अड़चन है। असल में साफ-साफ वेदों को निष्प्रयोजन या बेकार कह देने की हिम्मत किसी भी सनातनी ग्रंथ या महापुरुष को नहीं होती। वेदों का स्थान हिंदू-समाज में इतना ऊँचा है कि उनके बारे में स्पष्ट निंदासूचक शब्द बोला और लिखा जा सकता नहीं। ऐसी बात अब तक तो पाई गई है नहीं। ऐसी दशा में गीता जैसे सर्वप्रिय ग्रंथ यह बात कहे, सो भी स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के ही मुखों से, यह बात ठीक जँचती नहीं। इसीलिए तो इससे पहले के 'त्रैगुण्यविषया' श्लोक में जहाँ मुनासिब था यह कह देना कि तुम तीनों वेदों की परवाह छोड़ो - 'निस्त्रिवेदो भवार्जुन' या 'निस्त्रैविद्यो भवार्जुन', वहाँ यही कहा कि तुम त्रैगुण्य-रहित या संसार के पदार्थों से अलग हो जाओ - 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'। यदि श्लोक को गौर से पढ़ा जाए और उसका आशय देखा जाए तो वह यही है कि वेदों के इस जाल से बच जाओ। मगर ऐसा न कहके यही बात घुमा के कहो कि सांसारिक बातों की लालसा छोड़ दो। इससे भी अर्थात वैदिक कर्मकांड छूट ही जाएँगे। फिर भी स्पष्टत: ऐसा नहीं कहा। ठीक इसी तरह यहाँ भी कह दिया है कि वेदों का काम आत्मज्ञान से भी चल जाता है। मगर उस सीधे अर्थ में तो कुछ न कुछ छींटा वेदों पर आई जाता है। यदि गौर से देखा जाए। इसी से शंकर ने वह अर्थ नहीं किया है। हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है।

एक बात और भी है। यदि 'सर्वत: संप्लुतोदके शब्दों का सर्वत्र जल-प्लावन अर्थ होता है, तो 'संप्लुतोदके' की जगह 'संप्लुते दके' लिखना कहीं अच्छा होता। दक और उदक शब्दों का अर्थ एक ही है पानी। मगर उदक शब्द रखने पर संप्लुत के साथ उसका समास करना पड़ता है, जिसकी जरूरत उन लोगों के अर्थ में कतई रह जाती नहीं। वह तो तब होती है जब समुद्र अर्थ करना हो इसीलिए बहुब्रीहि समास करना पड़ता है। 'संप्लुतोदके' लिखने पर समास की गुंजाइश रह जाने से लोग वैसा कर डालते हैं। मगर यदि वैसा अर्थ इष्ट न होता तो साफ-साफ 'संप्लुते दके' लिख देते। फिर तो झमेला ही मिट जाता। इससे भी पता चलता है कि ऐसा अभिप्राय हुई नहीं।

शांतिपर्व के मोक्षधर्म के 241वें अध्याहय वाला 'ये स्म बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिन:। न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिवन्निव' (10) श्लोक देखने से पता लगता है कि वह भी परमज्ञान या आत्मज्ञान की ही बात कहता है। उसमें साफ ही कहा है कि इस परा या सर्वोच्च बुद्धि - ब्रह्म-विद्या - क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्मविद्या को ही परा विद्या कहा है - को जिनने हासिल कर लिया है वे कर्मों की बड़ाई नहीं करते, उनकी ओर रुजू नहीं होते। इसमें दृष्टांत देते हैं कि पीने आदि के लिए जो मनुष्य नदी में पानी पा लेता है वह कूप की परवाह नहीं करता। इससे भी पता लगता है कि जल-प्लावन से यहाँ अभिप्राय न हो के क्रमश: छोटे-बड़े और उनसे भी बड़े जलाशयों से ही मतलब है। इसी मानी में नदी और कूप का नाम लेना ठीक हो सकता है।

इस प्रकार यहाँ तक कर्मयोग की भूमिका पूरी करके अगले दो श्लोकों में उसी योग का स्वरूप बताया गया है। कर्म के संबंध की हिकमत, तरकीब, चातुरी या उपाय होने के कारण ही इसे कर्मयोग कहते है। इसका बहुत ज्यादा विवेचन और विश्लेषण पहले किया जा चुका है। शांतिपर्व के राजधर्मानुशासन के 112वें अध्यावय में भी योग शब्द उपाय या हिकमत के मानी में यों आया है, 'त्वमप्येवंविर्धं हित्वा योगेन नियतेन्द्रिय: वर्त्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत' (17)। यहाँ 'योगेन' शब्द का अर्थ नीलकंठ ने अपनी टीका में 'उपायेन' ऐसा ही किया है। शांतिपर्व के 130वें अध्या्य में भी 'अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते। विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकर पर' (12) श्लोक में नीलकंठ लिखता है कि 'अयोग उपायाभाव:' - "अयोग शब्द का अर्थ है उपाय का न होना।" इससे भी योग शब्द उपायवाचक सिद्ध होता है। योग का स्वरूप दो श्लोकों को मिला के पूरा हुआ है -

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ 47 ॥

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ 48 ॥

तुम्हारा अधिकार केवल कर्म में है; (कर्मों के) फलों में हर्गिज नहीं। कर्मों के फलों का खयाल (भी) न करो। कर्म के त्याग में तुम्हारा हठ न रहे। हे धनंजय, योग में ही कायम रह के, आसक्ति या करने का हठ छोड़ के तथा वे खामख्वाह पूरे हों यह परवाह छोड़ के कर्मों को करो। इसी समता या लापरवाही - बेफिक्री और मस्तागी - को ही योग कहते हैं। 47। 48।

पहले दो बार कहे गए समत्व में और इसमें क्या अंतर है और इसका मतलब क्या है ये सारी बातें पहले ही अत्यंत विस्तार के साथ लिखी चा चुकी हैं। यह तीसरा समत्व कुछ और ही है यह भी वहीं लिखा गया है।

कर्मयोग में असल चीज योग ही है, जिसका रूप अभी बताया गया है। वह विवेक या ज्ञानस्वरूप ही है। यह बात पहले कही जा चुकी है। 46वें श्लोक में इसी योग के संबंध की भूमिका स्वरूप जो 'विजानत: ब्राह्मणस्य' कहा है उससे यह बात निस्संदेह सिद्ध हो जाती है कि इस योग के मूल में आत्मतत्त्व का पूर्ण विवेक ही काम करता है। उसके बिना इस योग - कर्मयोग - का स्वरूप तैयार हो ही नहीं सकता। इसीलिए जो लोग ऐसा समझते हैं कि कर्मयोग में भी वास्तविक चीज एवं मूलाधार कर्म ही है और योग या बुद्धि - हिकमत, तरकीब - के रूप में जो ऊँची मनोवृत्ति काम करती है, वह सिर्फ सहायक है, उसके स्वरूप को मार्जित और शुद्ध होने में केवल मदद करती है, वह भूलते हैं। यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। कर्म तो उसका एक कार्यक्षेत्र जैसा है। असल चीज तो वह बुद्धि ही है। उसके मुकाबिले में कर्म को ऊँचा दर्जा देने का सवाल हई नहीं। किंतु -

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ 49 ॥

हे धनंजय, विवेक-बुद्धिरूपी योग की अपेक्षा कर्म कहीं छोटी चीज है। (इसलिए) उसी विवेक बुद्धि की ही शरण जा। क्योंकि जो लोग उस विवेक बुद्धि से रहित होते हैं वही तो फल की आकांक्षा करते (और इसलिए कर्म करते हैं)। 49।

यहाँ भी कृपण शब्द का वही अर्थ है जो पहले कहा गया है, अर्थात विवेक बुद्धि या आत्मतत्त्व के ज्ञान से रहित।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ 50 ॥

इस संसार में (उस) विवेकबुद्धिवाला (मनुष्य ही तो) पुण्य-पाप दोनों से पिंड छुड़ा लेता है। इसलिए (उस) बुद्धयात्मक योग (की ही प्राप्ति) के लिए यत्न करो। वह योग ही तो कर्मों (के करने) की चातुरी या विशेषज्ञता है, कुशलता है। 50।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलंत्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबंधविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ 51 ॥

क्योंकि बुद्धियुक्त मनीषी - पहुँचे हुए - लोग ही कर्मों से होने वाले (सभी) फलों से नाता तोड़ के जन्म (मरण) के बंधनों से छुटकारा पा जाते (तथा) निरुपद्रव पद - निर्वाणमुक्ति - प्राप्त कर लेते हैं। 51।

अब सवाल यह होता है कि तो यह बुद्धि प्राप्त होती है कब और इसकी प्राप्ति की पहचान क्या है? यह तो कोई विचित्र-सी चीज है, अलौकिक-सा पदार्थ है, नायाब वस्तु है, और जैसा कि पहले दिखलाया जा चुका है, जीते ही मौत के समान असंभव-सी है। इसलिए इसकी प्राप्ति आसान तो हो सकती नहीं। यह भी नहीं कि यह कोई स्थूल या साधारण भौतिक पदार्थ हो। यह तो असाधारण चीज है। बाहरी नजरों से देखी भी नहीं जा सकती। तब हम कैसे जानेंगे कि अब यह हासिल हो गई? इसका उत्तर यह है -

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ 52 ॥

जब तेरी अक्ल इस बुद्धि भ्रम के कीचड़ से पार हो जाएगी (तो) उस समय तुझे सभी बातों से विराग हो जाएगा, (फिर चाहे वह) जानी-सुनी हों या जानने योग्य हों। 52।

श्रु तिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समा धा वचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ 53 ॥

(इस प्रकार वेदशास्त्रों की सभी बातों से मन के विरागी हो जाने पर) उनके करते घपले तथा दुविधे में पड़ी तेरी अक्ल जब अंत:करण या दिमाग के भीतर ही रुक के वहीं सदा के लिए जम जाएगी तभी (समझना कि) बुद्धिरूपी योग प्राप्त हो गया। 53।

इन दोनों श्लोकों में जो बातें कही गई हैं। उनका जरा-सा स्पष्टीकरण जरूरी है। यह तो पहले ही कर्तव्याकर्तव्य के विवेचन में बता चुके हैं कि वेदशास्त्रों के अनेक वचनों और ऋषि-मुनियों के बहुतेरे उपदेशों के करते लोगों की अक्ल कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाने के बदले और भी दुविधे में पड़ जाती है। उसकी हालत ठीक वही हो जाती है जैसे अँधेरी गुफा में पड़ी कोई चीज अंदाज से ही टटोलने वाले की। वह कोई निश्चय कर पाता नहीं और भीतर ही भीतर ऊब जाता है। निश्चय की जितनी ज्यादा कोशिश वह करता है उतना ही ज्यादा दुविधा और पचड़ा बढ़ जाता है। ठीक 'ज्यों-ज्यों भीगै कामरी त्यों-त्यों भारी होय' या 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की' की हालत हो जाती है। मगर करे क्या? वेदशास्त्रों को छोड़ते भी तो नहीं बनता। जितना पढ़-सुन चुका होता है उसका भी बार-बार खोद-विनोद करता ही जाता है। नए-नए जो भी वचन पढ़ने-सुनने योग्य होते हैं उन्हें भी पढ़ता जाता है। समझदारी की यही तो दिक्कत है। यदि अपढ़-अजान होता तो यह कुछ नहीं होता। तब तो गलत-सही किसी बात को पकड़ के बैठ रहता कि यही ठीक है। इसीलिए तो नादानी को बहुत हद तक दिक्कतों की ढाल माना है। मगर हो क्या? यह बेचारा तो समझदार ठहरा।

इसीलिए पहले श्लोक में कहा है कि जब योगरूपी विवेक बुद्धि मिल जाएगी तो यह सभी पढ़ने-पढ़ाने एवं विचार-विमर्श की परेशानी एकाएक जाती रहेगी। तब दिल चाहेगा ही नहीं कि एक भी पन्ना उलटे या एक बात का भी खोद-विनोद करें। जैसे पका फल डाल से अकस्मात अलग हो जाता है, वैसे ही ये सभी बातें दिल से हट जाती हैं या दिल ही इनसे अलग हो जाता है। वह इन्हें पूछता भी नहीं। इसी को निर्वेद या वैराग्य कहा है।


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